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‘कम्प्यूटरिकृत’ या आम जिंदगी में कौन बेहतर!

Kalam mein mei jaan basti hai...bas ise mat todna
Kalam mein mei jaan basti hai...bas ise mat todna
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जिंदगी एक सफर है सुहाना, कल क्या हो किसने जाना…..जिंदगी जीते जीते इंसान का जीवन बीत जाता है। पर वह कभी अपनी जिंदगी से खुश नहीं रहता। जो गरीब हैं, उन्हें रोटी की चिंता। अमीर को कारोबार बढ़ाने की चिंता, इन सबके बीच एक दिन उसकी जिंदगी की गाड़ी थम जाती है और वो इन चिंताओं के साथ ही जिंदगी से विदा हो जाता है। उलझन भरी इस जिंदगी को आरामदायक बनाने का सपना मुझे उस समय आया जब मैं बैठा अपने कम्प्यूटर पर काम कर रहा था। मैंने जल्दी में कुछ का कुछ लिख दिया फिर झट से उसे ठीक कर आगे काम करने लगा। मुझे उस समय लगा क्यों ना हमारी जिंदगी भी कम्प्यूटर की तरह होती, ऐसी जिंदगी की कल्पना मात्र से मुझमें रोमांच भर गया। एक बार स्टार्ट बटन आॅन हो फिर दिन-भर की प्रक्रिया कैसे कम्प्यूटर सिस्टम की तरह चले, इस पर मेरे कल्पना के घोड़े दौड़ने लगे।
सबसे पहले मुझे कंट्रोल प्लस जेड(बजतस़्र) की उपयोगिता महसूस हुई, यह वह कमांड है जिससे हम अपनी गलती को सुधार सकते हैं। जीवन में गलतियाँ करना इंसान के स्वभाव में शुमार है। अपनी गलती पर इंसान हमेशा सोचता है कि काश! एक मौका मिल जाए तो मैं इसे सुधार लूँं। इस कमांड में मुझे उस काश! का जबाब मिलने लगा। इसके बाद डिलीट बटन की उपयोगिता को मैंने महसूस किया, लगा अगर व्यक्ति अपने गलत कार्यों को मिटाना चाहे तो ऐसी किसी बटन की उसे बेहद आवश्यकता पड़ेगी। इसके बाद तो कम्प्यूटर के कमांड्स और जिंदगी में जैसे मैं समानताएँ खोजने लगा। क्राॅप कमांड से छटपट बुरे लम्हों को जिंदगी की तस्वीर से हटा देता और जिंदगी के सुनहरे पलों को सेव कमांड से सुरक्षित कर लेता। अब तो मानो मैं कम्प्यूटर की दुनिया का इंसान बनने लगा था। फिल्मी दुनिया का मानना है कि ‘जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मुकाम..वो फिर नहीं आते’। पर मैं उन पलों को दुबारा जिंदगी में लाना चाहता था जो धोखे से डिलीट हो गये या जिन्हें मैंने कभी बुरा समझकर डिलीट कर दिया था। मुझे लगा कोई रिसाइकिल-बिन का फोल्डर होता तो तुरंत इन लम्हों को वापस ले आता। अब मानो मुझे ये कम्प्यूटर की जिंदगी रास आने लगी थी।
मेरी कल्पना में काॅपी कमांड भी शामिल हो चुका था। लग रहा था जहाँ काम की अधिकता में मैं ना पहुँच पाया, वहाँ खुद की काॅपी बना कर भेज दूँ। पर इसके दुष्परिणाम के बारे में तो मैं सोचना ही नहीं चाहता था। कल्पना के मनुष्य में मैं रि-फ्रेश होने के आॅपशन को भी देख रहा था, जब मन किया रि-फ्रेश होकर नई उमंग के साथ अपने काम पर लौट पड़ो। कल्पना करते हुए मेरी बैटरी डाउन होने लगी, अब मैं शॅट डाउन होना चाहता था और पुनः फुल चार्ज होकर लौटने का विचार कर कल्पना की दुनिया से बाहर आकर सो गया। मुझे लग रहा था मेरे कम्प्यूटर की तरह ही मेरी जिंदगी बन जाये तो कितना आंनद आयेगा। कहते हैं हर सिक्के के दो पहलू होते हैं तो मेरा ध्यान इसके दूसरे पहलू पर जाने लगा। इसमें मुझे कम्प्यूटर के हैंग होने अनायास ही बंद हो जाने के डर ने तो विचलित कर ही दिया। वायरस जैसी कम्प्यूटर की गंभीर बीमारी ने मेरे सपने के घड़े को तोड़ दिया। अब मैं ठगा-सा महसूस तो कर रहा था पर पुनः अपनी जिंदगी में लौट आने की खुशी भी मुझे मिल रही थी।

अभिजीत त्रिवेदी
कानपुर
7275574463

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