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सुरक्षा और न्याय का ढुलमुल रवैया

Kalam mein mei jaan basti hai...bas ise mat todna
Kalam mein mei jaan basti hai...bas ise mat todna
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बात अगर देश की सुरक्षा की हो तो यह एक बड़ा मसला है। ऐसे में एनआईए, एटीएस, आईबी, राॅ जैसी एजेंसीज की जिम्मेदारी बढ़ जाती है पर देश में इसके उलट कुछ और ही हालात हैं। 26/11, हैदराबाद ब्लास्ट, गोवा ब्लास्ट जैसी तमाम घटनाओं के बाद एक तथ्य सामने आया कि इन घटनाओं की जानकारी खुफिया विभाग को समय रहते मिल जाने के बाद भी इन पर कोई ठोस कदम नहीं उठाये गए, जिसके परिणामस्वरूप हम इन दर्दनाक घटनाओं के भुग्तभोगी बने। जो कि बेहद गंभीर मुद्दा है। घटनाओं से पहले की गतविधियों को छोड़ अगर घटना के बाद की बात करें तो यहाँ भी हाल वही है। पुलिस का घटना के घंटो बाद पहुँचना तो आम है ही साथ ही इनके कार्य करने का तरीका भी बेहद निराशाजनक है। सुरक्षा व्यवस्था के इस हाल ने तो अब एनएसजी कमांडो, जेड प्लस सिक्योरिटी गार्डस आदि पर भी संदेह उत्पन्न कर दिया है। घटनाओं की जाँच के लिए गठित एनआईए, एसटीएफ, सीबीआई आदि भी अपना कार्य ठीक प्रकार नहीं कर रहीं। जिससे किसी घटना का सच उजागर होने में सालों लग जाते हैं।
जाँच एजेंसियों में सबसे ज्यादा बदनाम सीबीआई है। इसके सरकार द्वारा चलित होने की खबरें आये दिन सुनने को मिलती हैं। हाल ही में कोयला आंवटन की जाँच रिपोर्ट मंे सरकार के इशारे पर फेरबदल की खबर ने एक बार फिर इसे सवालों के घेरे में ला दिया। हाल फिलहाल कई नेताओं ने भी सरकार पर सीबीआई के गलत इस्तेमाल के आरोप लगाए हैं। इसकी लेट-लतीफी और लापरवाही के दो उदाहरण राजा भईया के खाद्य घोटाले की फाइनल रिपोर्ट का वर्षों बीत जाने के बाद भी ना आना और दूसरा मामला 1984 सिख दंगों के मुख्य आरोपी जगदीश टाइटलर के मामले में कोर्ट द्वारा दो बार लताड़ खाने के बाद भी ठीक रिपोर्ट ना पेश करना है। यह तो सिर्फ उदाहरण मात्र हैं, ऐसी अनेक घटनाएँ हैं जो इसकी कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान खड़े करती हैं। कब तक अन्ना, केजरीवाल या फिर कैग प्रमुख विनोद राॅय जैसे लोग भ्रष्टाचारियों की पोल खोलते रहेंगे और ये एजेंसियाँ तमाशबीन बनी देखती रहेंगी ? देश की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था, गिरती विकास दर के साथ क्या अब हमें सुरक्षा और जाँच एजेंसियों की लापरवाही से भी दो-चार होना पड़ेगा ?
इससे इतर बात अगर न्यायलयों की करें तो यहाँ भी हालात बेहद निराश करने वाले हैं। न्यायाधीशों की कमी, अत्यधिक मामलों के चलते न्याय में देरी एक चिंता का विषय है। उदाहरण के तौर पर 1996 मे मोदीनगर ब्लास्ट के आरोपियों के 17 साल बाद सजा तय होना, चर्चित 1993 मुंबई ब्लास्ट का फैसला 20 साल बाद आ पाना हैं। फिर ये तो वे मामले हैं जिनमें आरोपी को दोषी करार दिया गया पर कई मामले ऐसे भी हैं जिनमें सालों जेल में रहने के बाद आरोपी को निर्दोष बता बरी कर दिया जाता है। ऐसे मामलों में कोर्ट द्वारा निर्दोष करार देने के बाद भी समाज उसे स्वीकार नहीं करता, ऐसे में उसका जीवन नरक हो जाता है। यदि किसी मामले का फैसला आने में दो दशक का समय लगता है तो यह शर्मिंदगी की बात है। देश के चार स्तम्भों में एक न्यायपालिका का यह चेहरा अशोभनीय है। इसमें सुधार की महती आवश्यकता है।
खुफिया विभाग, सुरक्षा एवं जाँच एजेंसीज व कोर्ट की यह कार्यप्रणाली घोर निराशा देने वाली है। ऐसे में देश की तरक्की का सपना सजोए देशवासी खुद को इनसे ठगा – सा महसूस कर रहे हैं। भ्रष्टाचार, कुशासन, मंहगाई से बेहाल लोग अब इन एजेंसियों से यह उम्मीद नहीं रखते हैं। देश की बेहतरी के लिए इनमें आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है।
अभिजीत त्रिवेदी
कानपुर
7275574463

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