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तमाम विवादों की नगरी बन चुके भारत में शिक्षा व्यवस्था काफी लचर है। सरकारी स्कूलों में बच्चे तो छोड़ दें, टीचर भी नदारत ही रहते हैं। प्राइवेट स्कूलों की तो काहानी ही निराली होती है। हमारे देश के विकास को गाँवों से जोड़कर देखा जाता है पर शिक्षा के मामले में गाँवों की दशा निंदनीय है। सरकार को जहाँ देशभर में शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए हाल ही में आए आम बजट में शिक्षा बजट को बढ़ाना था, उसके इतर बजट में कटौती कर इसे महज 65,867 करोड़ ही आवंटित किए गये। ऐसी स्थिति में देश की साक्षरता दर बढ़ाने के लिए चलाये जाने वाले कार्यक्रमों को भी उचित धन नहीं मिल पाया क्योंकि सर्व शिक्षा अभियान जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रम को महज 27 करोड़ का ही आवंटन हुआ जबकि इसे अधिक धन की दरकरार थी।
अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन जैसे देशों में साक्षरता दर जहाँ 99% है तो वहीं हमारे पड़ोसी मुल्क चीन में भी यह 92.2% है पर हम इनसे कई पीछे 83.04% साक्षर हैं, जिनमें 85.1% पुरूष और 76.5% महिलाएँ साक्षर हैं। ‘ पढ़ेगा इंडिया, तभी तो बढ़ेगा इंडिया ’ , ‘सर्वशिक्षा अभियान ’ जैसे बैनरों तले चलने वाले साक्षरता अभियान से देश पूर्ण साक्षरता की तरफ बढ़ तो रहा है पर इसकी गति बहुत धीमी है। आज विश्व के टाॅप 200 विश्वविद्यालयों में हमारा नाम कहीं नहीं है। इग्नू, बीएचयू जैसे संस्थान और टाटा, बिरला के नाम के नीचे चलने वाले तमाम प्रसिद्ध काॅलेजों में भी शिक्षा की स्पीड़ उतनी नही है, जितनी हमें देश की शिक्षा व्यवस्था को सही करने के लिए जरूरत हैै। शिक्षा व्यवस्था सुधार की शुरूआत गाँवो से करनी होगी क्योंकि यहाँ की बड़ी आबादी निरक्षर होती है। देश को पूर्ण साक्षर बनाने के लिए शिक्षा-व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तनों की आवश्यकता है। इस संबन्ध में मानव संसाधन विकास मंत्री को भारत सरकार का ध्यान आकर्षित करना होगा साथ ही शिक्षा सुधार संबन्धी विधेयकों को जल्द ही संसद से पारित भी कराना होगाा। तभी शिक्षा व्यवस्था सुधार में तेजी आयेगी।
अभिजीत त्रिवेदी
कानपुर
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